सत्य एक है

'सत्य एक है' जो कि 'एकम सत्' के अर्थ से लिया गया है, इसका सर्वप्रथम जिक्र हमें ऋगवेद में देखने को मिलता है। इसका तात्पर्य यह है कि सारे मानव जाति का भगवान एक है, बस उनके पास पहुँचने का माध्यम अनेक है। इस आलेख में हम यही समझने का प्रयास करेंगे और समाज में सभी लोगों को एक नजेरिए से देखने का प्रयास करेंगे। हमारा लक्ष्य बस खुद का विकास नही, बल्कि समाज का विकास में ही अपना विकास समझना चाहिए; यह तभी संभव होगा, जब हम सभी के मान्यताओं और विचारों को स्वीकारना सीखेंगे।

भारतवर्ष एक बहुधर्मी देश है। धर्म का विषय हमेशा से ही बहुत संवेदनशील रहा है; लेकिन अगर हमें उन्नति करनी है तो सदैव ही इसके रचनात्मक और सकारात्मक विचारों पर विचार करना चाहिए और ध्यान देना चाहिए। हमें खुद को बस एक धर्मों तक सीमित नही रहना है, हमें दूसरे धर्मों को भी समझकर अपने ज्ञान को विकसित करनी चाहिए। जीवन का लक्ष्य ज्ञान में वृद्धि होना चाहिए।

सच्चाई एक ही है, लेकिन ज्ञानी और विद्वान लोग इसको अलग-अलग तरीकों से प्रस्तुत करते है। सबका माध्यम भले ही भिन्न हो लेकिन सब खुद को अपने अंदर के अंतरिम प्रकाश से जोड़े रखना चाहते है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मैं सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करता हूँ; चाहे वह ( हिन्दू / इस्लाम / जैन / बौद्ध / पारसी / सिख / इसाई या अन्य) कोई भी हो। सभी को एक ही जगह पहुँचने की इच्छा है, मनुष्य अपने विचारों और मतों के अनुसार मार्ग चाहे जितने ही बना ले।

हमें मजहबों के सारे पक्षों को देखना चाहिए। हमलोग सभी अपने-अपने भगवान को करुणामय और दयावान मानते है, लेकिन फिर हम दूसरे के भगवान को गलत बोलते है और गलत समझते है। भगवान का तो कोई विशेष स्थान नही, वह तो सर्वव्यापी है। जब मानव पर संकट आता है, तो वह यह तो नही देखता की वह किस स्थान पर है, वह जंहा होता है वहीं से मदद की गुहार लगाता है।

‘स्वामी विवेकानंद’ ने 11 सितंबर 1893 को विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो (अमेरिका) में अपने भाषण में जो कहा था, उसका कुछ भाग निम्नलिखित है:-
“साम्प्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशज हठ धर्मिता लंबे समय से पृथ्वी को अपने-अपने शिकंजों में जकड़े हुए है। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए है। अगर ये भयानक राक्षस न होते, तो आज मानव समाज कंही ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चूका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का संखनाद सभी हठधर्मिता, हर तरह के क्लेश, चाहे वह तलवार से हो या कलम से और सभी मनुष्य के बीच के दुर्भावना का विनाश करेगा। सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मात्मा इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुकी हैं। वह हिंसा से धरती को भरती रही है, व उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही है, सभ्यताओं को पुरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही है। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियां न होती तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है और मैं आतंरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटाध्वनी हुई है, वह समस्त धर्मात्मा का, तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्परिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।”

स्वामी विवेकानंद

धार्मिक मुद्दों पर लड़ाई-झगड़े को छोड़कर हमें मानव जाति के लिए काम करना है। समाज के उत्थान के लिए कार्यरत रहना है। जो लोग पीड़ित है, गरीब है और लाचार है; उनलोगों के बारे में सोचना है, उनकी प्रगति पर काम करना है। सही शिक्षा और ज्ञान के जरिए हम इसे बहुत अच्छे तरीकों से कर सकेंगें। सार्वजानिक जीवन में आतंरिक कटुता को जड़ से खत्म करना होगा, तभी मानवता की जीत होगी। ‘कबीर’ की लिखी दो पक्तियाँ निम्नलिखित है, जो हमें सभी के प्रति सहानुभूति रखने को प्रेरित करती है:-
“घट घट में तेरे साईं बसत है,
कटुक बचन मत बोल रे।”

हमें हमारी प्रकृति को बचानी है, पर्यावरण पर ध्यान देना है। खुद को प्रकृति से जोड़कर रखना है और सभी को भी जुड़ने के लिए प्रेरित करना है। हम सभी मानव जाति मिलकर नया समाज, नया देश का निर्माण करेंगें। यह नया भारत बनाने के लिए अवश्य ही एक अच्छी नींव बनेंगी।
प्रीति कुमारी
लेखिका (इंटर्न) at नया.भारत | + posts

स्नातकोत्तर (इतिहास) की छात्रा।

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